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24 April, 2021

वृत्रासुर स्तुति (Vrutrasur Chaturshloki Stuti)

 

अहं हरे तव, पादैक मूल,

दासानुदासो, भवितास्मि भूय:।
मन: स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते,
गृणीत् वाक्कर्म करोतु काय:॥

*हे श्री हरि ! मैं सदा आपके चरणारविंद का आश्रय करने वाले आपके दासों का भी दास बनुं। मेरा मन- मेरे प्राणपति ! आपके ही गुणों का स्मरण करता रहे। मेरी वाणी आपके गुणों का गान करती रहे और मेरा देह आपकी सेवा का कार्य करता रहे ऐसी कृपा करें।*

न नाकपृष्ठं, न च पारमेष्ठ्यं,
न सार्वभौम, न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धिर्पुनर्भवम् वा,
समंजसत्वा, विरहय्य कांक्षे ॥

*हे समग्र ऐश्वर्य के भंडार भगवान ! मैं आपको छोडकर स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक, चक्रवर्तीपद, रसातल का स्वामित्व, अणिमादि योगकी सिद्धियों या मोक्षकी भी इच्छा भी नहीं रखता। (मैं तो केवल आपके शरण की ही कामना करता हूँ)*

अजातपक्षा, ईव मातरं खगा:,
स्तन्यं यथा वत्सतरा: क्षुधार्ता:।
प्रियंप्रियेव, व्यूषितं विषण्णा, मनोरविंदाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥ 

*हे कमलनेत्र ! पंख प्राप्त नहीं होने वाले पक्षियों के बच्चे जैसे माता को देखने के लिये लालायित होते हैं। क्षुधा पीड़ित छोटे बछड़े जिस तरह स्तन पान करने के लिये उत्सुक होते है। और काम से पीड़ित पत्नी जिस तरह विदेश गये हुए पति को देखने के लिये उत्सुक होती है वैसे ही मेरा मन भी आपके दर्शन करनेको अति आतुर बन गया है।*

ममोत्तम श्लोक जनेषु सख्यं, संसारचक्रे, भ्रमत: सवकर्मभि:।
त्वन्माययात्मात्मजदार गेहेष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात् ॥
 
*हे नाथ ! अपने कर्मो के अनुसार इस संसार चक्र में भ्रमण करता हुआ मुझे उत्तम कीर्ति प्राप्त आपके भक्तों की ही मैत्री प्राप्त हो; परंतु जो आपकी माया को वश होकर देह, पुत्र, स्त्री और घर में ही आसक्ति रखते हो उनसे मेरा कदापि सम्बन्ध न हो। यदि मैं दु:संग से बचूँगा तो ही आपकी कृपा का अधिकारी बनुंगा।*